संगिनी
तुम नही सहचारिणी , न अर्धांगिणी,
न रहती साथ मेरे , या आसपास,
पर जीवन पथ पर हो अखंड साथ।
नही तरसता मैं तुम्हे देखने को , दिख जाती हो ।
नही तडपता मिलने को तुमसे ,मिल लेती हो ।
याद भी क्यों करूँ तुम्हे , जब भूलता ही नही.
तुम मनमें , विचारोंमें हो , कल्पना नही वास्तव में हो,
तुम कभी पथप्रदर्शक , हर बढते कदम में,
साथ तो हो तुम, शायद मेरी सहमार्गिणी!!
छूने की तुम्हे कभी पाली थी लालसा ,
पर अब ऐसे शौक मै नही पालता।
डरता हूँ स्पर्श से कहीं खो न दूँ तुम्हे , हे स्वप्नपरी!
तुम मंज़िल थी कभी ,अब मंज़िल का रास्ता हो,
मेरी सफलता की प्रेरणा, मेरी शिल्पकार हो,
शायद तुम ही मेरी यश, कीर्ती की देवी!!
शरीर न बंधे , पर मन बंध जाता ,
अदृश्य -सा धागा दोनों में ,कोई खिंच जाता,
क्या हे सखी ! गर तुम मेरी सहचारिणी नही?!
अंतिम पल तक जीवन के साथ हो, कामना यही,
मीत बनें , गम सहे , आपस मे खुशियाँ बाँटी,
फिर गठबंधन न होने से, क्या फर्क पडता है कोई??
© सौ. स्वाती बालूरकर देशपांडे , " सखी "
दिनांक १९ . ०१ . २०२२