उषःकाल की स्वर्णिम आभा मेरी खिडकी से झाँक रही थी ! कहीं दूर मंदीरों में पखावज और शंख कि गुँज से आसपास का वातावरण मंत्रमुग्ध सा लगने लगा!
अनायास ठंडी हवा से सिहरन उठी जीजी ने शाँल भेजी थी उसकी गरमाहट को महसुस करता मैं खिडकी से झाँकने लगा !
जुही की आँगन में पडी चाँदनीयोंको वह सिमट रहीं थी! वही उतावलापन, जुही कि महक साँसो में भरकर आँखे मूँद खडी थी! मेरी आहट से चौक हडबडा गयी !
हडबडाहट में सारे फुल हथेलीयों से छूटकर बिखर गये ! उसकी यह रोज की अटखेलियाँ...वही रोज का आना मेरी तनहाइयों को सहलाता ..!
" जाग गये तुम?" " हाँ , चाय की प्याली हाथ में थमाकर गौरीनंदन चला गया,..ठंड जरा ज्यादा ही थी ! दोनो हाथों को चाय की गरमाहट से सेंक ही रहा था कि,वह फीर से आई ! गीलें बालों पर चमचमाती ओंसल की बूंदे बेतहाशा चमक रही थी! दो चार जुही की चाँदनीयाँ बालोपर सजी थी मैं बेसुध उस सुंदरता को निहारता रहा,.!
" आज कुछ लीखा.?" मेरी कविताओं के पन्ने मेज पर अकेले ही पडे थे! उन्हे ठिक से संजोकर वह पढने लगी ! "अं हं"
"कुछ अधुरा सा लग रहा है"
" कया करु अब नही होगा मुझसे ! थक गया हूँ अपने आप से ! जिंदगी तो बोझ लग रहीं है!"
खिलखिलाकर वो हँस पडी "जिना भूल गये हो तुम सौमित्र.."
"हाँ जीना भूल गया हूँ ..माँ- बाबूजी नहीं है जो वजह थे मेरे होने की !"
"पागल हो, कहाँ वो उम्रभर रहते साथ तुम्हारे ?"...गडगडहाट से मन काँप गया बिन मौसम बरसात होने वाली है..! शायद मेरे भविष्य की तरह जिसका कोई भरोसा ही नही !..
अलमारी से मेरी किताबों को टटोलते सहजता से उसने मेरे हाथों पर पलाश के दो फुल रखे....कितनी सुंदर जालीयाँ पडी थी! माँ कि निशानियाँ ऊन धारीयों ने संजोयी है अबतक!
मेरी यादों के सुनहरे फुल..! उन्हे फिर से किताबो के पन्नो पर रखा उसने और फिर से किताबें अलमारी में रख दी ! बूंदो कि आहट तेज होती गयी मेरे हाथों को पकड वह आँगन में ले गयी ! कुछ छीपा रही थी शायद..! "..कया छिपा रही हो?"
" तुम्हारा बचपन!" कागज की नाँव ..पानी की नहर सी दो रेखाओं में उसने नाँव छोड दी डगमगाती वह पानी पर तैरने लगी !
बेपरवाह अनजान मासूम बनकर तैरती नाव हंस हंसकर मुझे दिखाने लगी...!
बारीश की बुंदो को हथेलियों से सहलाने लगी...! मैं भावविभोर उसकी इसी चंचल आँखो में अपने आप को खोजने लगा !
बाबुजी क्या कर रहे हैं आप...?"
"अभी तो बुखार उतरा है आपका"
" देखो न वो लेके आई मुझे"
"कौन ? यहाँ तो कोई नहीं है !"
"तभी मैं सोचू ,अकेले अकेले क्या बडबडा रहे है आप ..दवा का असर है सब ,
आपको भिगना नहीं चाहिए था,.!"
गौरी मेरे हाथों में तौलियाँ देकर दुसरे से बाल पोंछने लगा..! हरबार यहीं तमाशा ..!
पागल करके छोडेगी !
गौरी के पीछे खडी चिढाने लगी !
कैसे बहाने बनाती हो रोज रोज ! क्यों सताती हो ,जीने को मजबूर करती हो..!
" मैं दवाईयाँ और नाश्ता लेकर आता हूँ आप चुपचाप बैठे रहें यहाँ ! "
उसके जाते ही मैंने उस की बाहें खिंचकर उसे सामने खडा किया .."आखिर कौन हो तुम ? " अपनी नाजूक कलाईयाँ छुडाने लगी दो तीन चुडीयाँ टूटी "छोडो मुझे मैं नहीं बस में आनेवाली ."
"तुम्हे जानता तो हुँ ,पर पहचानता नहीं !"
अपनी नाजूक कलाइयाँ छुडाकर वो भाग खडी हुई बस्स इतना कहाँ ....
मैं
मैं तुम्हारी कल्पना...!
अनायास ठंडी हवा से सिहरन उठी जीजी ने शाँल भेजी थी उसकी गरमाहट को महसुस करता मैं खिडकी से झाँकने लगा !
जुही की आँगन में पडी चाँदनीयोंको वह सिमट रहीं थी! वही उतावलापन, जुही कि महक साँसो में भरकर आँखे मूँद खडी थी! मेरी आहट से चौक हडबडा गयी !
हडबडाहट में सारे फुल हथेलीयों से छूटकर बिखर गये ! उसकी यह रोज की अटखेलियाँ...वही रोज का आना मेरी तनहाइयों को सहलाता ..!
" जाग गये तुम?" " हाँ , चाय की प्याली हाथ में थमाकर गौरीनंदन चला गया,..ठंड जरा ज्यादा ही थी ! दोनो हाथों को चाय की गरमाहट से सेंक ही रहा था कि,वह फीर से आई ! गीलें बालों पर चमचमाती ओंसल की बूंदे बेतहाशा चमक रही थी! दो चार जुही की चाँदनीयाँ बालोपर सजी थी मैं बेसुध उस सुंदरता को निहारता रहा,.!
" आज कुछ लीखा.?" मेरी कविताओं के पन्ने मेज पर अकेले ही पडे थे! उन्हे ठिक से संजोकर वह पढने लगी ! "अं हं"
"कुछ अधुरा सा लग रहा है"
" कया करु अब नही होगा मुझसे ! थक गया हूँ अपने आप से ! जिंदगी तो बोझ लग रहीं है!"
खिलखिलाकर वो हँस पडी "जिना भूल गये हो तुम सौमित्र.."
"हाँ जीना भूल गया हूँ ..माँ- बाबूजी नहीं है जो वजह थे मेरे होने की !"
"पागल हो, कहाँ वो उम्रभर रहते साथ तुम्हारे ?"...गडगडहाट से मन काँप गया बिन मौसम बरसात होने वाली है..! शायद मेरे भविष्य की तरह जिसका कोई भरोसा ही नही !..
अलमारी से मेरी किताबों को टटोलते सहजता से उसने मेरे हाथों पर पलाश के दो फुल रखे....कितनी सुंदर जालीयाँ पडी थी! माँ कि निशानियाँ ऊन धारीयों ने संजोयी है अबतक!
मेरी यादों के सुनहरे फुल..! उन्हे फिर से किताबो के पन्नो पर रखा उसने और फिर से किताबें अलमारी में रख दी ! बूंदो कि आहट तेज होती गयी मेरे हाथों को पकड वह आँगन में ले गयी ! कुछ छीपा रही थी शायद..! "..कया छिपा रही हो?"
" तुम्हारा बचपन!" कागज की नाँव ..पानी की नहर सी दो रेखाओं में उसने नाँव छोड दी डगमगाती वह पानी पर तैरने लगी !
बेपरवाह अनजान मासूम बनकर तैरती नाव हंस हंसकर मुझे दिखाने लगी...!
बारीश की बुंदो को हथेलियों से सहलाने लगी...! मैं भावविभोर उसकी इसी चंचल आँखो में अपने आप को खोजने लगा !
बाबुजी क्या कर रहे हैं आप...?"
"अभी तो बुखार उतरा है आपका"
" देखो न वो लेके आई मुझे"
"कौन ? यहाँ तो कोई नहीं है !"
"तभी मैं सोचू ,अकेले अकेले क्या बडबडा रहे है आप ..दवा का असर है सब ,
आपको भिगना नहीं चाहिए था,.!"
गौरी मेरे हाथों में तौलियाँ देकर दुसरे से बाल पोंछने लगा..! हरबार यहीं तमाशा ..!
पागल करके छोडेगी !
गौरी के पीछे खडी चिढाने लगी !
कैसे बहाने बनाती हो रोज रोज ! क्यों सताती हो ,जीने को मजबूर करती हो..!
" मैं दवाईयाँ और नाश्ता लेकर आता हूँ आप चुपचाप बैठे रहें यहाँ ! "
उसके जाते ही मैंने उस की बाहें खिंचकर उसे सामने खडा किया .."आखिर कौन हो तुम ? " अपनी नाजूक कलाईयाँ छुडाने लगी दो तीन चुडीयाँ टूटी "छोडो मुझे मैं नहीं बस में आनेवाली ."
"तुम्हे जानता तो हुँ ,पर पहचानता नहीं !"
अपनी नाजूक कलाइयाँ छुडाकर वो भाग खडी हुई बस्स इतना कहाँ ....
मैं
मैं तुम्हारी कल्पना...!
©लीना राजीव.