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खामोशी की जुबां!( कहानी अनघा की)

पढे कहानी अनघा की
खामोशी की जुबां!
(कहानी)

"क्या तुम मुझसे शादी करोगी?" निहार ने अनघा से पूछा, और उसकी आँखों में आँसू भर आए।

"अरे पगली, तू रो क्यों रही है? मैं तुझसे कुछ पूछ रहा हूँ और तू बस रो रही है। देख, अगर तेरा रोना ही जवाब है, तो मैं इसे हाँ समझकर अभी और यहीं तेरी उंगली में अंगूठी पहनाता हूँ। अब मेरे घुटनों में भी दर्द होने लगा है यार। मैं पैंतीस का जो हो गया हूँ।" घुटनों पर बैठा निहार मजाकिया लहज़े में बोला।

"नहीं।" जैसे ही वह उसकी उंगली में अंगूठी पहनाने बढ़ा, अनघा ने झट से हाथ पीछे खींच लिया।

"नहीं? मतलब अनघा, तुम मुझे मना कर रही हो? सीरियसली?" उसके इनकार से उसका मन टूट सा गया।

"नहीं, मेरा मतलब ‘वो नहीं’ नहीं था। मैं तुम्हारे इस तरीके से अंगूठी पहनाने से मना कर रही हूँ।" वह सफाई देती हुई बोली।

"एक्सक्यूज़ मी? तुम्हारा मतलब मुझे ठीक से समझ नहीं आया। कृपया और स्पष्ट करके बताएंगी प्लीज?" उसने विस्मय से उसकी ओर देखा।

"मेरा मतलब है हाँ... निहार मैं तुम्हारे प्रपोज़ल को स्वीकार करती हूँ।"

"क्या कहा तुमने? प्लीज एक बार फिर कहोगी?" उसने जानकर भी अनजान बनते हुए कहा।

"अरे हमारी बेटी ने हाँ कहा है तो अब मान भी लो।" अर्चनाजी ने उसे पीठ पर हल्की सी चपत लगाते हुए कहा।

"नहीं माँ... आज मुझे बोलना है। वर्षों से मन में जो संजोया था, वो आज उसे कहना है। आज जब वो सुनना चाहता है, तो मैं सब कुछ कहना चाहती हूँ। आज अगर नहीं कहा, तो शायद कभी नहीं कह पाऊँगी।" आँखों के आँसू पोंछते हुए अनघा बोली।

"निहार, तुमने मुझसे शादी के लिए पूछा ना? मैं तैयार हूँ। इतने सालों से तुम मेरे मन में थे, पर मुझे खुद ही समझ नहीं आया था। समझ भी आता तो भी मैं जानती थी कि मेरे घर में इस तरह का प्यार स्वीकार नहीं किया जाएगा। इसलिए मैंने सब कुछ मन में दबा लिया था, कभी हिम्मत नहीं हुई ज़ाहिर करने की।


लेकिन आज जब तुमने पूछा है, तो मेरे मौन शब्दों को आवाज़ मिल गई है। मेरे खामोशी के जुबां ने तुम्हे पहले ही सबकुछ बता दिया हैं फिर भी मैं शब्दों सें कहना चाहती हूं। आज नहीं कहा तो शायद कभी नहीं कह सकूंगी।" वह कुछ पल के लिए रुक गई।


"आई लव यू। सच में, मुझे तुमसे प्यार है। किसी एहसान या माँ और पिताजी के कहने पर मैं इस शादी के लिए तैयार नहीं हूँ। मैं सच में अपना जीवन तुम्हारे साथ बिताना चाहती हूँ, इसलिए मैं 'हाँ' कह रही हूँ।" आँखों से बहते आँसुओं को रोके बिना वह बोली और फिर अनंतराव, अर्चनाजी और छोटे सुमेध ने तालियाँ बजाईं।

"हे चैंप, मुझे पापा कहने के लिए तुम तैयार हो ना?" निहार सुमेध की ओर देखकर बोला और सुमेध दौड़कर आकर उससे लिपट गया।

"यस पापा, मैं हमेशा तैयार हूँ।" उसे चूमते हुए सुमेध बोला और अनघा फिर से रो पड़ी।

"तो अब मम्मा की उंगली में अंगूठी पहनाऊँ?" निहार ने उसकी अनुमति लेकर कहा।

"यस पापा।" सुमेध ने कहा और निहार ने अनघा की अनामिका में धीरे से अंगूठी पहना दी।

"अब हमारे रिश्ते पर मुहर लग चुकी हैं। जल्द ही ऑफिशियल तौर पर हम इंगेजमेंट करेंगे और बाद में शादी।" उसे गले लगाते हुए वह बोला और अनघा की आँखों से फिर सावन की फुहारें बह निकलीं।

"अनघा बस रोती ही रहेगी क्या? ये तेरी ज़िंदगी का सबसे ख़ुशहाल पल है। कम से कम अब तो मुस्कुरा।" अर्चनाजी उसके पास आकर बोलीं और अनघा ने उन्हें कसकर गले लगा लिया।

"माँ, मैंने हमेशा अपनी किस्मत को कोसा है, लेकिन आज मुझे अपनी ही किस्मत पर रश्क आ रहा है। मुझे आप जैसे सास-ससुर मिले और अब निहार मिला। सच कहूँ तो मुझे समझ ही नहीं आ रहा मैं क्या कहूँ। धीरज के जाने के बाद..."

"अब पुराने घाव मत कुरेद। जितनी पुरानी बातें याद आएँगी, उतना ही दर्द होगा। तू हमें माँ और पिताजी कहती है ना? तो अब हमारी बात सुन। अब तुम्हारे जीवन में एक नया अध्याय शुरू होने जा रहा है, तो किसी भी बात की परवाह किए बिना आगे कदम बढ़ा। समझी?" उसे स्नेह से सहलाते हुए वे बोलीं,

बोलते-बोलते उनका स्वर भीग गया और आँखों में आँसू आ गए।

"हम्म..." उसने धीरे से सिर हिलाया।

"निहार, हम अपनी बेटी तुम्हारे हाथ में सौंप रहे हैं। हमें पता है तुम्हें उससे प्यार है, फिर भी एक पिता के नाते बस इतना कहूँगा कि हमारी बेटी अनमोल है। अगर कोई उसे ज़रा भी स्नेह दे, तो वो बदले में भरपूर प्रेम लुटा देती है। उसे संभालना। उसकी देखभाल करना।" अनंतराव भावुक होकर बोले।

"अंकल, मैं आपको कभी शिकायत का मौका नहीं दूँगा। आप निश्चिंत रहें।" निहार बोला।

"मुझे पता है। अर्चना, अब जब दोनों तैयार हैं, तो जल्दी से शादी की तारीख निकाल लेते हैं।" उन्होंने कहा और अनघा शर्मा गई।

"अंकल, मैं कल अपने माँ-पापा को लेकर आऊँगी। तब तारीख तय करते हैं। अब मुझे इजाज़त दीजिए, मैं निकलता हूँ। बाय चैंप!"

"बाय पापा!" सुमेध ने उसे फ्लाइंग किस दिया।

निहार खुशी-खुशी सीटी बजाते हुए बाहर चला गया और अनघा सुमेध को लेकर अर्चनाजी और अनंतराव के पास आकर बैठ गई। उसका सिर अर्चनाजी की गोद में था और वे उसके बालों में हाथ फेर रही थीं। उसके सामने उसका पूरा अतीत चलचित्र की तरह घूमने लगा।

पाँच साल पहले, सीधे रास्ते पर चलने वाली अनघा ने कॉलेज खतम होते ही काम शुरू किया और वहीं ऑफिस में निहार मिला। पहली ही नज़र में वह उसे देखकर घायल हो गया था। अपनी बात कहने के लिए वह बहुत कोशिश कर रहा था, लेकिन अनघा, जो खुद उससे अनजाने में प्यार करने लगी थी, जानती थी कि उसके घर में ये स्वीकार नहीं होगा, इसलिए वह उसे टालती रही।

खामोशी की भी जुबां होती हैं और उसकी खामोशी ने निहार को दिल की बात बता दी थी पर होठो सें बयां न कर सकी। उसके अनुशासन प्रिय पापा इस प्यार को मंजुरी नहीं देंगे यह उसे पता था।

काम शुरू हुए एक साल भी नहीं हुआ था कि उसका रिश्ता धीरज से तय हो गया, जो अर्चनाजी और अनंतराव का बेटा था। दिल का प्यार दिल में ही रखकर वह शादी के लिए राज़ी हो गई। शादी को दो ही महीने हुए थे कि एक दिन घर लौटते समय धीरज का एक्सीडेंट हुआ और उसी में वह चल बसा।

वह चाहती तो मायके जा सकती थी, लेकिन बहू का फर्ज़ निभाते हुए वह ससुराल में ही रुकी रही। इकलौते बेटे के जाने के बाद अर्चनाजी और अनंतराव के पास सहारा सिर्फ वह ही थी। ऊपर से उसे माँ बनने का अहसास भी हो गया था। धीरे धीरे उनका रिश्ता बहू और सास-ससूर की बजाय लडकी और माँ -पिताजी में बदल गया। अपनी सगी लडकी जैसे वे उसे प्यार देने लगे।

नौ महीने बाद जब सुमेध का जन्म हुआ, तो जैसे उनके जीवन में रोशनी आ गई। अनघा और सुमेध ही अब उनका सबकुछ थे। लेकिन जवान उम्र में अनघा की ऐसी हालत देखकर उन्हें दुःख होता था।

सुमेध के दो साल का होते ही अनघा ने फिर से काम शुरू किया और वहीं उसे फिर निहार मिला। उसकी वैधव्य की अवस्था देखकर निहार भावुक हो गया था।

उसके कारण उसे कोई परेशानी ना हो, इसलिए निहार ने उससे सिर्फ प्रोफेशनल रिश्ता रखा, लेकिन धीरे-धीरे यह रिश्ता दोस्ती में बदल गया। फिर वह कभी अनघा को छोड़ने, तो कभी सुमेध को मिलने के बहाने घर आने लगा। सुमेध उसमें फादर फिगर देखने लगा और अर्चनाताई और अनंतराव उसमें अपने बेटे को।

"निहार, तुमसे थोड़ा बात करनी है।" एक दिन अनंतराव ने बात शुरू की और उससे कहा कि अगर उसे आपत्ति न हो तो वह अनघा से शादी कर ले।

“अंकल... मैं..." निहार को समझ ही नहीं आया क्या कहे। ये वही बात थी जो वह खुद सालों से सोच रहा था, लेकिन डरता था कि अनघा कैसे रिएक्ट करेगी।

सच तो ये है कि निहार से मिलने के बाद अनघा के भीतर की भावनाएँ फिर से जाग उठी थीं। उसके आने पर सुमेध की खुशी और सास-ससुर को मिलती राहत वह देख रही थी। वह जानती थी कि निहार भी उसे याद करता है, लेकिन समाज के डर से उसने अपने प्यार को कभी ज़ुबान नहीं दी।

"अनघा, अब तुम्हें दोबारा शादी करनी चाहिए।" एक दिन अर्चनाजी ने उससे कहा।


"माँ, मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगी और शादी के बारे में तो मैं सोच भी नहीं सकती।" उसने जवाब दिया।

"वो भी तो यही कहता है बेटा। उसने भी वादा किया है कि वो हमें कभी अकेला नहीं छोड़ेगा। तुम कहती हो उससे शादी नहीं करनी, लेकिन क्या तुम्हें वो पसंद है या नहीं, ये अपने दिल से पूछो। हमें पता है तुम्हारे दिल में निहार है। तुम्हारे खामोश शब्दों ने हमें सब कुछ बता दिया है। हमें भी वो पसंद है और सुमेध तो उसे अपना बेस्ट बडी मानता है। तो फिर तुम क्यों अपने दिल की बात दबा रही हो? अपनी भावनाओं को ज़ुबान दो।" उसकी ठोड़ी ऊपर उठाते हुए माँ ने कहा।

"माँ..."

"तू हमें माँ-पिताजी कहती है ना? तो हमें भी अपनी बेटी के हाथ पीले करने का सौभाग्य मिलने दे।" माँ ने कहा और उसकी आँखें भर आईं।

वो पल... और आज का ये पल!

इन्हीं की वजह से आज वह निहार के प्रपोज़ल को 'हाँ' कह सकी। अपनी भावनाएँ उसे शब्दों में बता सकी। उसके खामोशी की जुबां को जैसे आज आवाज़ मिल गई थी। उसके नए जीवन में अब खुशियों की बहार आने वाली थी।

-समाप्त-
©®Dr.Vrunda F. (वसुंधरा..)

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