इंसान को मौन रखना चाहिए या नहीं?
यह सवाल जितना सरल दिखता है, उतना ही गहरा है। मौन यानी चुप्पी—लेकिन क्या हर चुप्पी समान होती है? क्या मौन कमजोरी की निशानी है, या आत्मबल की?
मौन की ज़रूरत क्यों है?
हर इंसान के भीतर एक संसार होता है—सोचों का, भावनाओं का, उलझनों और सपनों का। जब हम लगातार बोलते रहते हैं, तो दूसरों की आवाज़ें और अपनी भी आवाज़ें हमारे भीतर की आवाज़ को दबा देती हैं। मौन हमें अपने अंदर झाँकने का अवसर देता है।
मौन वो दर्पण है जिसमें आत्मा अपना चेहरा देखती है।
मौन की ज़रूरत क्यों है?
हर इंसान के भीतर एक संसार होता है—सोचों का, भावनाओं का, उलझनों और सपनों का। जब हम लगातार बोलते रहते हैं, तो दूसरों की आवाज़ें और अपनी भी आवाज़ें हमारे भीतर की आवाज़ को दबा देती हैं। मौन हमें अपने अंदर झाँकने का अवसर देता है।
मौन वो दर्पण है जिसमें आत्मा अपना चेहरा देखती है।
लेकिन क्या हर जगह मौन सही है?
नहीं। जब अन्याय के विरुद्ध बोलना ज़रूरी हो, तब मौन अपराध बन जाता है। जब किसी को सहारा चाहिए, तब मौन दूरी बना देता है। जब सच बोलना ज़रूरी हो, तब चुप रहना कायरता हो सकती है।
नहीं। जब अन्याय के विरुद्ध बोलना ज़रूरी हो, तब मौन अपराध बन जाता है। जब किसी को सहारा चाहिए, तब मौन दूरी बना देता है। जब सच बोलना ज़रूरी हो, तब चुप रहना कायरता हो सकती है।
तो इंसान को मौन कब चाहिए?
जब भीतर शांति चाहिए
जब विचारों को समझना हो
जब अनावश्यक विवाद से बचना हो
जब भावनाएँ अस्थिर हों
जब खुद से मुलाकात करनी हो
और कब नहीं चाहिए?
जब अन्याय हो रहा हो
जब अपने या अपनों की रक्षा करनी हो
जब सच की आवाज़ उठानी हो
जब किसी के मौन से किसी को चोट पहुँच रही हो
जब भीतर शांति चाहिए
जब विचारों को समझना हो
जब अनावश्यक विवाद से बचना हो
जब भावनाएँ अस्थिर हों
जब खुद से मुलाकात करनी हो
और कब नहीं चाहिए?
जब अन्याय हो रहा हो
जब अपने या अपनों की रक्षा करनी हो
जब सच की आवाज़ उठानी हो
जब किसी के मौन से किसी को चोट पहुँच रही हो
इंसान को मौन चाहिए, लेकिन विवेक के साथ। कब बोलना है और कब चुप रहना है—ये समझना ही सच्चा बोध है।
कविता: "मौन की ज़रूरत"
मौन भी एक भाषा होती है,
हर शब्द से गहरी आशा होती है।
जो कह न सके वो कह जाता है,
ये ख़ामोशी भी सिखा जाती है।
जब शोर बढ़े दुनिया के भीतर,
तब मौन से मिलती राहत हर पिघलकर।
बिना बोले जो बात समझे,
वो मौन ही है जो रिश्ता बुन दे।
सत्य की बेला में चुप रह जाना,
संघर्ष से पहले हाथ पीछे हटाना—
ये मौन नहीं, डर की परिभाषा है,
जहाँ बोलना ज़रूरी हो, वहाँ चुप्पी निराशा है।
पर जब दिल भारी हो, आँखें भीगी हों,
जब अपनी ही सोचें पीछा करती हों,
तब थोड़ी देर की ये ख़ामोशी
मन को फिर से सजीव करती है।
मौन कभी कमजोरी नहीं,
ये आत्मा की गहराई है कहीं।
कभी धैर्य, कभी सोच, कभी संवाद,
मौन के भीतर छिपे हैं कई संवाद।
तो बोलो जब बोलना सच हो,
चुप रहो जब मौन से बच हो।
इंसान को मौन चाहिए ज़रूर,
पर समझ के साथ, हो उसका दस्तूर।
ये आत्मा की गहराई है कहीं।
कभी धैर्य, कभी सोच, कभी संवाद,
मौन के भीतर छिपे हैं कई संवाद।
तो बोलो जब बोलना सच हो,
चुप रहो जब मौन से बच हो।
इंसान को मौन चाहिए ज़रूर,
पर समझ के साथ, हो उसका दस्तूर।
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