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बेटी का मायका !

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बेटी का मायका

©® आरती पाटील - घाडीगावकर

"सोहम, बेटा सोहम |  जा जाके पनीर लेके आ, और सुन आते हुये छगनलाल जी की दुकान से काले जामून और कुछ नमकीन भी लेते आना  | " रागिनी ने अपने बाईस साल के बेटे से कहा  |

सोहम अपनी माँ के तरफ आश्चर्य से देखते हुये बोला, " माँ लेकिन आपको तो काले जामून बिलकुल पसंद नही हैं| फिर काले जामून क्यू ? "

रागिनी ने सोहम की तरफ प्यार से देखते हुये कहा, " दोपहर तक तुम्हारी लाडली रीमा दीदी आ रही हैं | और तुम्हे तो पता हैं, उन्हे काले जामून कितने पसंद हैं| बस इसलिये, अब जा जल्दी से मुझे और भी काम हैं|

सोहम अपनी रीमा दीदी की आने की बात सुन खुश था|

सूरज अपनी सुनहरी किरणों से धरती को आलोकित कर रहा था। गाँव के कोने में बनी पुरानी हवेली में चहचहाहट थी। आज कई वर्षों बाद रीमा अपने मायके आई थी। मायके की देहरी पर कदम रखते ही उसकी आँखें छलक उठीं। वह वही घर था जहाँ उसने अपने बचपन के सबसे सुंदर दिन बिताए थे।

रीमा की शादी को दस वर्ष हो चुके थे। वह शहर में अपने पति और बच्चों के साथ रहती थी। भागदौड़ भरी ज़िंदगी में मायके आना बहुत कम हो पाता था। लेकिन इस बार जब माँ ने फ़ोन किया, तो वह खुद को रोक नहीं पाई।

जैसे ही वह घर में दाखिल हुई, माँ ने उसे गले से लगा लिया। आ गई मेरी गुड़िया? कितने दिन हो गए तुझे देखे हुए! माँ की आवाज़ में वही पुराना प्यार था। रीमा के पापा भी बरामदे में बैठे अख़बार पढ़ रहे थे। उन्होंने चश्मा हटाया और मुस्कुराते हुए कहा, आ गई बिटिया! अब तो कुछ दिन रुकने का इरादा है न ?

रीमा ने मुस्कुराकर सिर हिलाया और घर के हर कोने को देखना शुरू किया। वही पुरानी अलमारी, वही खाट और आँगन में लगा वह नीम और आम के पेड़। उसे अपना बचपन याद आ गया।

आज रीमा को घर के कामो की फिकर नही थी| वो तो बस अपने मायके के आंगण में झूम रही थी| घर का कोना कोना फिर से दिल और यादो में भर रही थी | दोपहर में सोहम रीमा को खाने के लिये बुलाने आया, देखा तो रीमा बाहर के झूले पर बैठी बैठी बाहर के आम वृक्ष को निहार रही थी |

सोहम, " क्या देख रही हो दीदी ? "
रीमा सोहम की और देखते हुये बोली, " अपना बिता बचपन देख रही हू सोहम | तुम्हे पता हैं? इस आम वृक्ष का सबसे पहला आम मैं ही खाती थी | जिद्द थी मेरी, फिर इस वृक्ष का पहला आम में खाऊ ऐसा जैसा रिवाज हो गया था | जीवन में बडे बदलाव आये, जीवन व्यस्त होता चला गया, किंतु आज भी यादे ताजा हैं | बिता हुआ वक्त फिर से तो नही आ सकता लेकिन यादों के सहारे संजोया तो जा सकता हैं ना ? बस यहा आने के बाद वही करती हुं | " रीमा ने समाधान जाताते हुये कहा|

तभी रागिनी जी ने आवाज लगायी, " सोहम, तुम्हे दीदी को खाना खाने के लिये बुलाने भेजा था ना ? यही रहा गया ? "

सोहम, " माँ, वो दीदी की यादों वाली बातो में भूल गया| "

दोपहर में सब खाना खाने बैठे तो थाली में पनीर की सब्जी के साथ काला जामून देख रीमा का दिल भर आया | एक मायका ही तो हैं, जहाँ बेटीयों को पसंद नापासंद, नाज - नखरे, खुशियों का कुछ जादा खयाल रखा जाता हैं | खाना खाने के बाद रीमा अपने माँ की गोद में सर रखकर ढेर सारी बाते कर रही थी |

शाम को रीमा छत पर बैठी थी। ठंडी हवा के झोंके उसके बालों से खेल रहे थे। माँ ने गरमागरम पराठे और अचार लाकर दिया। याद है तुझे, जब तू छोटी थी, तो यही पराठे खाकर स्कूल जाती थी? रीमा हंस पड़ी, हाँ माँ, और मैं हमेशा दो पराठे ज़्यादा लेती थी ताकि दोस्तों के साथ बाँट सकूँ।

बचपन की हर याद ताज़ा हो गई थी। मायका सिर्फ़ एक घर नहीं होता, यह वह जगह होती है जहाँ बेटी हर चिंता भूल जाती है और फिर से छोटी बच्ची बन जाती है।

अगले दिन रीमा अपनी पुरानी सहेली सीमा से मिलने गई। सीमा को देखते ही वह खुशी से झूम उठी। दोनों ने घंटों बातें कीं, पुराने स्कूल के दिनों को याद किया। सीमा ने हँसते हुए कहा, याद है, जब हम स्कूल जाने के बहाने नदी किनारे खेलने चले जाते थे ? और फिर घर आकर माँ से झूठ बोलते थे ?

रीमा खिलखिला उठी, हाँ! और माँ को सब पता चल जाता था, फिर भी वह कभी डाँटती नहीं थी।

दोनों सहेलियाँ मायके की यादों में खो गईं।

रात में जब रीमा सोने जा रही थी, तब माँ उसके पास आईं। बेटा, तुझे वहाँ कोई परेशानी तो नहीं? तेरा पति तुझे अच्छे से रखता है न? माँ की चिंता उसकी आँखों में साफ झलक रही थी।

रीमा ने माँ का हाथ पकड़ा और कहा, माँ, वहाँ सब ठीक है, लेकिन यहाँ आकर जो सुकून मिलता है, वह कहीं और नहीं मिलता। माँ ने उसे माथे पर चूमा और धीरे-धीरे पंखा झलने लगीं।

यह माँ का प्यार ही था, जो कभी नहीं बदलता। मायका बेटी के लिए एक मंदिर की तरह होता है, जहाँ उसकी हर तकलीफ़ दूर हो जाती है।

तीन दिन कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला। यह तीन दिन आगे के कुछ वर्षे के लिये संजीवनी का काम करने वाले थे | जाने का समय आ गया। रीमा की आँखें नम हो गईं। माँ की आँखों में भी आँसू थे, लेकिन उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, जल्दी आना बेटा।पापा ने कहा, अपना ख्याल रखना, और हाँ, बच्चों को भी लेकर आना।

रीमा ने माँ-पापा के पैर छुए और गले लगा लिया। गाड़ी में बैठते ही उसने एक बार फिर अपने मायके को देखा। वही घर, वही लोग, वही प्यार। वह मन ही मन सोच रही थी – मायका सिर्फ़ एक जगह नहीं, एक एहसास है। जीवन में चाहे कितने भी उतार- चढाव आये, मायका एक होसला देता हैं | एक ऐसी जगह जहाँ बेटीयों को प्यार मिलेगा इस बात का याकिन होता हैं |

यह कहानी एक बेटी के मायके से जुड़े भावनात्मक एहसासों को दर्शाती है।

समाप्त.